जब 1951 में भारत में पहला आम चुनाव हुआ, जब हमारा देश गणतंत्र बन गया, तो लोकसभा और विधानसभा दोनों के चुनाव एक साथ हुए। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार नया नहीं है। संभवतः, संविधान निर्माताओं को राजनीतिक दलों के टूटने, नेताओं के दल बदलने, सरकारों के गिरने और उसके बाद मध्यावधि चुनाव होने का कोई पूर्वाभास नहीं था। अब वास्तविकता यह है: केंद्र और राज्यों में सरकारें कई बार गिरी और उसके बाद चुनाव हुए।
अब हम ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां लगभग हर छह महीने के अंतराल पर राज्यों में विधानसभा चुनाव होते हैं। बार-बार चुनाव होने के कारण न तो केंद्र और न ही राज्य सरकारें सुधार कर सकती हैं और न ही कठोर निर्णय ले सकती हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उनका वोट बैंक न छिन जाए या मतदाताओं की नाराजगी का सामना न करना पड़े। लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का विचार अच्छा है, लेकिन इसे लागू करना मुश्किल हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इरादे भले ही नेक हों, लेकिन मोदी सरकार के हर बड़े फैसले का विरोध करना अब कांग्रेस की आदत बन गई है। कांग्रेस नेताओं को मोदी के हर बड़े कदम के पीछे साजिश की बू आती है। अन्य राजनीतिक दल इसके गुण-दोष को स्वीकार करने के बजाय यह तौलना पसंद करेंगे कि यह फैसला उनके हितों के लिए फायदेमंद होगा या नुकसानदेह।
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मुद्दे पर राजनीतिक दलों से राजनीति से ऊपर उठने की उम्मीद करना चाँद माँगने जैसा है। जमीनी स्तर पर कुछ विपक्षी दलों को लगता है कि अगर एक साथ चुनाव हुए तो उनके पास मोदी का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं होंगे। उनका दूसरा डर यह है कि उनके पास मोदी जैसा कोई मजबूत राष्ट्रीय स्तर का नेता नहीं है जो पूरे देश में चुनाव होने पर मतदाताओं को प्रभावित कर सके। लेकिन ये दल सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि ये विपक्षी नेता अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ दे रहे हैं।
कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि मोदी राज्य सरकारों को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, कुछ लोग इसके पीछे आरएसएस के एजेंडे को मानते हैं, जबकि कुछ लोग कहते हैं कि मोदी राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार लाना चाहते हैं। ऐसी सभी आशंकाएँ निराधार हैं। असली वजह मैं पहले ही बता चुका हूँ। विपक्षी नेताओं को लगता है कि अगर वे सब एक साथ मिलकर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की लड़ाई लड़ें, तो भी वे मोदी का मुकाबला नहीं कर सकते। उन्हें आशंका है कि मोदी ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विकल्प इसलिए चुना है क्योंकि उनके दिमाग में कोई बड़ी योजना है जिसे वे लागू करना चाहते हैं। यह डर और संदेह इनमें से ज़्यादातर पार्टियों को इस फ़ैसले का समर्थन करने के लिए आगे आने से रोकता है।
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